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Tuesday, 1 May 2018

सुभाष नीरव

बुझानी है आग

सुभाष नीरव 


प्रेम के पंछी खतरे में हैं
जंगल में नफरतों की आग सुलगी है
हमें अपनी आँख के आँसुओं को
बारिशों में बदलना है !


बरसों बाद

बरसों बाद -
कोई करीब आकर बैठा
सर्दियों की गुनगुनी धूप-सा
बरसों बाद -
किसी ने यूँ हल्के से छुआ
जैसे छूती है हवा हौले से
सिहरन दौड़ाती देह में
बरसों बाद -
यूँ साझे किये अपने दो बोल किसी ने
जैसे घर की मुंडेर पर
आकर करती है चिड़िया
बरसों बाद -
खुशबुओं के सरोवर में उतरा हूँ
डूब जाने के लिए !


समंदर

इस समंदर का क्या करूँ
जो खींचता तो है खूब अपनी ओर
पर मेरी प्यास बुझाने के लिए
चुल्लू भर पानी भी नहीं है जिसके पास
लौटता हूँ -
नदियों की तरफ ही अपनी प्यास लेकर
पर नदियों की चाहतों में भी तो
ये समंदर ही साँस लेता है !


याद की किश्तियाँ

कितना उदास हो जाता है
मेरे अंदर की झील का पानी
जिस दिन नहीं उतरती हैं
तेरी याद की किश्तियाँ इसमें !



प्रेम की बारिश

एक शब्द मेरे पास था
मैंने उसे पानी पर लिखना चाहा
हवा, धूप और आकाश पर भी
पर लिख नहीं पाया
मैं मायूस हुआ

धरती ने कहा -
आ, मैं तेरे लिए सलेट बन जाती हूँ
कागज़ बन जाती हैं
आ, तू लिख मेरी देह पर

मैंने अपने सीधे हाथ की
तर्जनी को बनाया कलम
और मिट्टी में उकेर दिए
ढाई आखर

धरती ने महसूस की
अपनी समूची देह में
एक गुदगुदी मीठी-सी

हवा ने प्यार से सहला दिए
मेरे सिर के बाल
धूप ने चूम लिया मेरा मुख

आकाश देखकर मुस्कराया
पानियों में हुई छटपटाहट
वे बादल बन गए
देखते ही देखते
भीगने लगी सारी कायनात
प्रेम की बारिश में...।

1 comment:

  1. बढ़िया कविता नीरव जी . अब तक आपके कहानी, लघुकथा और अनुवाद पक्ष को जानता था . कवि के रूप में अब परिचय हो रहा है . बधाई

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